कहानी संग्रह >> मुझे बाहर निकालो मुझे बाहर निकालोगोविन्द मिश्र
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गोविन्द मिश्र अपनी एकदम नई कहानियों के साथ प्रस्तुत संकलन में उपस्थित हैं
'जाओ, मित्र जाओ। लम्बी पसरी जिन्दगी में कुछ अच्छी चीजें, कुछ बहुत मीठे क्षण दे गए तुम। यही क्या कम रहा। जीवन की झोली में कहीं कुछ ठहरता है, जो तुम ठहरते। एक ही काम तो है जो हम ता-जिन्दगी करते रहते हैं.. .प्लेटफार्म पर खड़े होकर लोगों को विदा करना.. .किसी को जीवन कै पार, किसी को जीवन के भीतर ही।.. .जब तक एक दिन खुद भी विदा नहीं हो जाते।'' (कहानी 'लहर' से) दस से ऊपर कहानी संग्रहों के बाद गोविन्द मिश्र अपनी एकदम नई कहानियों के साथ प्रस्तुत संकलन में उपस्थित हैं। पिछले संग्रहों में अगर कहीं उन्होंने जीवन-स्थितियों के विभिन्न रंगों को रेखांकित किया, या सामाजिक सियनों पर नजर गड़ाते हुए सामाजिक, राजनीतिक, व्यवस्था पर चोट की, या जैसे 'पगला बाबा' में जीवन के सौन्दर्य को झलकाया.. .तो 'मुझे बाहर निकालो' की कहानियों का स्वर उन सब चीजों को सम्मिलित करते हुए भी उनसे नितान्त अलग है जो गोविन्द मिश्र की निरन्तर चलती हुई कथायात्रा को इंगित करता है। अलग-अलग परिवेश की जीवन-स्थितियाँ जो सामाजिक परिवेश के इस या उस पक्ष से जुड़ती हैं, उन पर कटाक्ष भी करती हैं, पर कहानियों का बुनियादी स्वर जीवन के सरकने, बीतने और उनसे उत्पन्न पीड़ा का है, जैसे जीवन का बुनियादी तत्त्व यही हो। कहीं 'नोस्टैल्लिया' का दर्द है तो कहीं सिर्फ बीतने के अहसास की दबी-दबी चुभन...जो इन कहानियों को मानव जीवन के मूल पक्ष से जोड़ती है-जीवन में जो हर समय में कुल मिलाकर ऐसा ही रहा है। इसलिए निस्संकोच कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ सार्वकालिक कहानियाँ हैं-वे जिन तक लेखक तात्कालिक यथार्थ को लाँघकर पहुँचता है और जो हर युग में प्रासंगिक होती हैं, उतने ही चाव से पड़ी जाती हैं। संग्रह की अन्तिम तीन कहानियाँ कथात्रयी हैं, जिन्हें एक साथ एक लम्बी कहानी के रूप में भी पढ़ा जा सकता हे और अलग-अलग भी।
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